मंगलवार, 25 मार्च 2025

International Seminar on Nature Faith, Climate Change and Human Rights' Challenges organized by Prof. Kanhaiya Tripathi, Chair Professor, Dr. Ambedkar Chair, Central University of Punjab, Bathinda (Punjab) India

  Today we require a safe and healthy environment to fulfil fundamental human rights. Articulating the fundamental rights of peoples in relation to climate change establishes the freedom to secure rights through human rights bodies like NHRC, NHRI, ILO, International Court, and OHCHR in national/international debate, just as an autonomous body or public tribunals do. We know that the Universal Declaration of Human Rights-UDHR is a milestone document in the history of human rights and humanity. Drafted by representatives with different legal and cultural backgrounds from all regions of the world, the Declaration was proclaimed by the United Nations General Assembly in Paris on December 10th, 1948 through the General Assembly resolution 217-A’ as a common standard of achievements for ‘All Peoples’ and ‘All Nations’. At this ‘75@Amritkaal’ moment now we should think, that the 75th anniversary is an opportunity to rejuvenate the Universal Declaration of Human Rights, demonstrate how it can meet the needs of our time, and advance its promise of freedom, fraternity, brotherhood, universal approach and values, equality and justice for all. India is a rapidly developing country with a population of over 1.4 billion people. This has resulted in increased pressure on natural resources and a rise in environmental degradation. As a result, the need for environmental rights in India has become more pressing than ever before. Here are some reasons why those issues are: Protection of the environment, Conservation of natural resources, Climate change, Health and well-being, and Sustainable development. But, the most important thing is well-being, livelihood with dignity in a clean nature. Without this, we cannot achieve any goals of SDG 2030. The Indian Constitution and environmental laws recognize the importance of protecting the environment and promote sustainable development. But, no doubt, we are facing challenges like environmental issues, socioeconomic and cultural, nature threats, and liveliness. Human rights may be safeguarded when our current situation is protected, and when climate change occurs, human rights may also suffer due to the proximity of both. Indian knowledge tradition and our heritage of civilization are our backbones. We believe in ‘Sarve Bhavantu Sukhinah, Sarve Santu Niramaya’. We believe in ‘īśāvāsyamidaṃ sarvaṃ yatkiñchya jagatyāṃ jagat, tena tyaktena bhuñjīthā mā gṛdhaḥ kasya sviddhanam’. Indian Sanatan tradition is the sole of humanism. But today, we have a lot of questions about nature, culture, climate change, and human rights. We have questions about our generation's and future generations' sustainability, scopes, possibilities, and alternatives. We cannot survive without a better nature, a clean environment, sustainable peace, and human dignity.

शनिवार, 20 अप्रैल 2024

About Kanhaiya Tripathi



डॉ. कन्हैया त्रिपाठी

पूर्व विशेष कार्य अधिकारी (OSD),

महामहिम राष्ट्रपति,

भारत गणराज्य

 

चेयर  प्रोफ़ेसर,  पंजाब केन्द्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा-151410  मो. 9818759757, 8989154081, Email: hindswaraj2009@gmail.comkanhaiy.tripathi@cup.edu.in

Website: www.kanhaiyatripathi.com 


 

संक्षिप्त परिचय

     जन्मोत्सव: 01 जनवरी, 1981

अहिंसा एवं शांति अध्ययन में एम.. (Gold Medal), एम. फिल. (Gold Medal), पी-एच. डी.। अंतरानुशासनिक विषय-Interdisciplinary Subject के विशेषज्ञ, मानव अधिकार व गांधी विमर्श पर विशेष कार्य। पी-एच. डी.का शोध विषय- "भारतीय मानव अधिकार आंदोलन: एक समीक्षात्मक अध्ययन"।  एम. फिल. का शोध विषय- "आदिवासी समाज और मानव अधिकार"

 शैक्षणिक कुल अनुभव: असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के रूप में 10 साल का अनुभव डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (मध्य प्रदेश) में और  विजिटिंग  प्रोफेसर, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा (सत्र: 2006-2008),

40 से अधिक संपादित और लिखित पुस्तकें (सतह से शिखर तक भारत के राष्ट्रपति, आदिवासी समाज और मानव अधिकार, अहिंसक सभ्यता के लिए, भारतीय मानव अधिकार आंदोलन: कुछ नई पहल, हिन्द स्वराज: अहिंसक क्रांति का दस्तावेज़, हिन्द स्वराज: शताब्दी विमर्श, डॉ. आंबेडकर का सत्य भारत आदि) प्रकाशित। 120+ आलेख, 100+ से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में सेमिनार, कॉन्फ्रेंस, वेबिनार में प्रतिभागिता या मुख्य अतिथि व अध्यक्षीय उद्बोधन, किसान आत्महत्या पर आधारित एक डाक्यूमेंट्री का निर्माण 2006 में।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से क्रिएटिव राइटिंग अवॉर्ड व गांधी पीस फाउंडेशन नेपाल से गांधी नोबल पीस अवॉर्ड-2020 व पॉपुलेशन कम्युनिकेशन इंटरनेशनल न्यूयार्क से प्रथम अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त। 2023 में पिट्सबर्ग, अमेरिका (यूएसए) की ओर से सेतु साहित्य सेवी सम्मान-2023 प्राप्त, वर्ष 2024 में नेशनल अमेजिंग गोदावरी मेमोरियल अवार्ड ईडब्ल्यूएस, खजुराहो द्वारा प्राप्त 

    डॉ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय अयोध्या में मुझे Dr. Rammanohar Lohiya Socio-economic Policy and Development Study Centre में Adjunct Professor के रूप में ऑफर एवं तीन वर्ष तक सफलतापूर्वक कर्त्तव्य निर्वहन

भारत के दो राष्ट्रपतियों के साथ कार्य करने का अनुभव: महामहिम श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटील जी के मानद संपादक और माननीय श्रीयुत प्रणब मुखर्जी जी के विशेष कार्य अधिकारी-ओएसडी के रूप में

 राष्ट्रपति भवन में अन्य दायित्वों के निर्वहन के साथ राष्ट्रपति महामहिम श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटील जी के 16 पुस्तकों का और माननीय श्रीयुत प्रणब मुखर्जी जी के 5 पुस्तकों का सम्पादन।

वर्चुअल ग्लोबल एजुकेशन प्राइवेट लिमिटेड में इंडिपेंडेंट डायरेक्टर के रूप में कार्पोरेट जगत का 8 वर्ष का अनुभव।

नार्थ महाराष्ट्र यूनिवर्सिटी, जलगांव के ट्राइबल अकादमी के बोर्ड में बतौर मेम्बर-एडवाइजर और गांधी सेंटर धुलिया,  बोर्ड ऑफ स्टडीज के सदस्य

डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय में बतौर उप सम्पादक, मध्य भारती, अकादमिक चेयर को-ऑर्डिनेटर, मीडिया ऑफिसर और यूजीसी-एचआरडीसी के प्रभारी निदेशक के दायित्व अनुभव

सेतु द्विभाषी अंतरराष्ट्रीय जर्नल, पिट्सबर्ग अमेरिका, और फरवरी 2019 अंक अतिथि संपादकत्व में प्रकाशित, मूल्यानुगत मीडिया के संपादकीय सलाहकार सदस्य के रूप में कार्य। सम्पादकीय सलाहकार सदस्य,

मानवाधिकार: नई दिशाएं (राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग, नई दिल्ली से प्रकाशित जर्नल), नई डोर पत्रिका के आंबेडकर विशेषांक का सम्पादन

लोक सभा चैनल में को-एंकर और आकाशवाणी के धारावाहिक दहलीज़, तिनका-तिनका सुख और ये कहाँ आ गए हम का समीक्षक, पत्रोत्तर संचालक और रेडियो ब्रिज प्रोग्रामर, आकाशवाणी बरेली से आज़ादी के अमृत महोत्सव पर उन्हें याद करते हुए! कार्यक्रम। आकाशवाणी लखनऊ से शाम-ए-अवध कार्यक्रम में विशेष साक्षात्कार

माननीय प्रधान मंत्री श्रीयुत नरेन्द्र मोदी जी के मिडिया से हुए संवाद का संपादन "नरेंद्र मोदी से संवाद" (3 खंडों में पुस्तक प्रकाशित और सरसंघचालक श्रद्धेय मोहन भागवत जी के अभिभाषणों पर आधारित "अक्षय भारत: विजन एवं संकल्प" का संपादन व प्रकाशन

 महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जी पर एक पुस्तक “जनप्रिय द्रौपदी मुर्मू: व्यक्तित्व एवं विचार”

अहिंसा आयोग आंदोलन के संस्थापक, जिसकी चर्चा संयुक्त राष्ट्र महासभा अध्यक्ष द्वारा संयुक्त राष्ट्र में।

 भारत के विभिन्न पत्र/पत्रिकाओं में 120 से अधिक लेख प्रकाशित।

हिंदुस्तान, आज, देवल दैनिक, स्वदेश, स्वाधीनता गज़ट, ग्रामीण भारत, दैनिक जागरण, अमर उजाला, डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट, जनादेश, शार्प रिपोर्टर, नयालुक, अपना मऊ, दि ग्राम टुडे, डेरी टुडे, सुबह सवेरे, सेंट्रल क्रानिकल, लोक दस्तक, ओपेन डोर और प्रजातन्त्र जैसे महत्त्वपूर्ण दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक समाचार पत्रों में संपादकीय पेज पर आलेख प्रकाशित

सेतु द्विभाषी अंतरराष्ट्रीय जर्नल, पिट्सबर्ग अमेरिका हेतु अहिंसा विषय पर कॉलम 2016 से लगातार प्रकाशित

 संयुक्त राष्ट्र महासभा के नए अध्यक्ष महामहिम चबा कोरोसी के साथ ‘इनफॉर्मल इंटरएक्टिव डायलॉग’में वर्तमान संयुक्त राष्ट्र महासभा अध्यक्ष महामहिम अब्दुल्ला शाहिद के आमंत्रण पर प्रतिभागिता, संयुक्त राष्ट्र में आयोजित डॉ. आंबेडकर के 132वें जन्मोत्सव पर कार्यक्रम में सहयोगी आयोजक- एआई फॉर सोशल जस्टिस

 प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के रेडियो कार्यक्रम मन की बात के 100 एपीसोड पूर्ण होने पर आकाशवाणी महानिदेशालय, नई दिल्ली के लिए विशेष रेडियो रूपक जन-जन की बात-मन की बात का लेखन (इसका राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारण आकाशवाणी के सभी केन्द्रों से 30 अप्रैल, 2023 को हुआ ), मन की बात पर विशेष आलेख दैनिक जागरण, सुबह सवेरे, जनहित इंडिया, जनादेश टुडे, हरिभूमि और लोक दस्तक में प्रकाशित

इंटरनेशन फैलोशिप प्रोग्राम ऑन नॉन-वायलेंसएंड पीस (आईएफपीएनपी)-2022-23 के तहत सेवाग्राम आश्रम प्रतिष्ठान, वर्धा, गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद साबरमती आश्रम प्रिजर्वेशन एंड मेमोरियल ट्रस्ट, अहमदाबाद और एमजीएम यूनिवर्सिटी, औरंगाबाद की ओर से संयुक्त रूप से अंतरराष्ट्रीय फ़ैलो ऑफ नॉन-वायलेन्स एंड पीस घोषित

सम्प्रति: पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, भटिंडा (पंजाब) में मानाधिकार एवं पर्यावरणीय मूल्य पर केन्द्रित डॉ. आंबेडकर चेयर में Chair Professor  पद पर कार्यरत



 

2+2 


 

शनिवार, 2 अप्रैल 2022

पानी के बिना हम जियेंगे कैसे?

 पानी हमारे लिए जीवन की डोर है. यदि हाथ से डोर छूटी तो जीवन ही खत्म. इसलिए पानी की महत्ता हम सबको समझ समझ आनी चाहिए.

मरुस्थल एरिया में रह रहे लोगों को केवल सजग होने के उपदेश देने वाले लोग खुद से पानी बचाने की मुहिम में यदि शामिल नहीं होते हैं तो देश किस ओर पहुंचेगा यह कहना मुश्किल है. पानी के लिए हमारी जरूरतें क्या हैं? हमें इन्हें कैसे संरक्षित करना है यह तो लोग सोच ही नहीं रहे हैं. रामराज का असली लाभ तभी मलेगा जब गांव में रहने वाले, गांव के विकास कार्य से जुड़ी प्लानिंग और मैनेजमेंट तक में सक्रिय सहभागता हो...प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के शब्द. अभी तक हमारे समाज में केवल पानी को लेकर जागरूकता  बहुत कम है.

भारत समेत दुनिया के विभिन्न कोने में पानी को लेकर जताई जा रही चिंता हमारे होश उड़ने वाली हैं. हमारे नदी, पोखर और नहरें सब सूख रहे हैं. पेड़ों को लगाने वाले लोग कम बचे हैं और जो जंगल हमारे पूर्वज देकर गए थे उन्हें हम काटते जा रहे हैं.

हमें तो बीएस यही चिंता है कि पानी के बिना हम जियेंगे कैसे?



बुधवार, 27 जनवरी 2016

मीडिया का आत्म

मीडिया का आत्म
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी

मीडिया का आत्म अभी तक अव्याख्यायित व अपरिभाषित है इसके पीछे जो कारण मुझे दीखता है, वह यह है कि या तो मीडिया इंटेलीजेंशिया इसको लेकर ज्यादा चेतस नहीं है. दूसरा, जो कारण मुझे दीखता है वह है- मीडिया के दर्शन को समझने की कोशिश अभी तक मीडिया बौद्धिकों (Media Intellectuals ) के बीच नहीं हो सकी. इसलिए भी शायद “मीडिया के आत्म” पर ज्यादा विमर्श नहीं हुआ. लेकिन मेरी दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण पहलू है, जिस पर देर-सवेर ही सही परिभाषित व व्याखायित करने की ज़रूर आवश्यकता महसूस की जायेगी.
मीडिया के आध्यात्मिक-अप्रोच ‘मीडिया के आत्म’ को समझने के लिए कुछ सहयोग प्रदान करते हैं. ‘मीडिया के आत्म’ को गीता के बहाने ज़रूर समझा जा सकता है. गीता का प्रत्येक पक्ष सतत समाज के अभिनवीकरण और मूल्यानुगत परिवर्तन के लिए क्रमशः सूत्र प्रदान करते हैं जो मीडिया का ख़ास मकसद होता है. सच्चे कर्म, आचरण, व्यवहार, संवेदना के साथ स्वीकृति और मूल्यहीन चीजों के साथ अस्वीकृति पर गीता हमें आगे बढ़ने की दृष्टि देती है. सत्य एवं ईश्वर के समक्ष रखते हए धर्म का निर्वाह करने का अद्भुत चित्रांकन हुआ है तो उसमें समष्टिगत चेतना का विकास है. और देखा जाय तो यह गीता का दृष्टिकोण मीडिया के वास्तविक आत्म का एक तरह से प्रतिबिम्बन है.
आत्म-बोध एक जटिल संवेदना है. यह साधना से ही संभव है. मनुष्य खुद इस आत्म को सामान्यतया काफी जिज्ञासा का विषय मानता है. जैसे बौमिस्टर Baumeister (1999) “आत्म” के बारे में कहता है- "The individual's belief about himself or herself, including the person's attributes and who and what the self is."1 इस प्रकार व्यक्ति स्वयं जब आत्म पर विचार करता है तो वह खुद से प्रश्न करता है-वह क्या है?, क्यों है? किसलिए है?
आत्म के खोज में मीडिया का भी यह प्रश्न हो सकता है लेकिन इसके त्वरित उत्तर भी देने की कोशिश करके मीडिया के आत्म को व्याख्यायित नहीं किया जा सकता क्योंकि सूक्ष्म का विश्लेषण दर्शन में सामान्य तरीके से नहीं होता. दर्शन में सूक्ष्म की व्याख्या दर्शनशास्त्री जीव-जगत की व्याख्या के साथ करते हैं. इसमें जीव-जगत के साथ परा-अपरा की भी व्याख्या होती है. मीडिया के साथ संभव है इतने गहराई से विचार न हों लेकिन किसी भी तथ्य के सम्प्रेषण में मीडिया के मूल्य उसके आत्म के लिए ज़वाबदेही तय करते हैं इसलिए इसकी गहनता भी काफी स्वतंत्र तरीके से अभिव्यक्त होगी. इसका कारण यह है कि मीडिया भी अपने अंतःकरण के साथ समय सापेक्षता को निर्धारित कर पा रहा है या नहीं यह उसे देखना होता है इसलिए मीडिया का आत्म मीडिया के अंतरात्मा और उसके अंतरात्मा की चेतना पर निर्भर करेगा जिस चेतना के साथ मनुष्य स्वयं खुद से सवाल करता है कि क्यों और किसलिए? मीडिया के तरह मनुष्य के चेतना की व्याप्ति समाज चाहता है क्योंकि मीडिया मनुष्य की संवेदन-प्रक्रिया से होकर गुजरने वाली चेतना है.
 डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपने सुप्रसिद्ध भाषण “पूरब और पश्चिम” में कहा था, “आज आत्मा के भीतर विचारों एवं चेतना के बीच की खाईं है. अपने आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक अवयवों में सामंजस्य स्थापित हो जाने के बाद ही कोई समाज स्थाई हो पाता है. ये तत्व अगर अर्थहीन दशाओं में पहुँच गए तो सामाजिक व्यवस्था चकनाचूर हो जाती है.” इस स्थिति में आत्म का प्रकाश-मीडिया के आत्म का प्रकाश किस तरह के रास्ते को चुने इसको उसे तय करना होगा. प्रायः यह सोचा जाता है कि मीडिया के आत्म का प्रकाश इसे सही दिशा में सही तरीके से आचरण में लाएगा लेकिन मीडिया के आत्म का प्रकाश भी मनुष्य के चेतना पर यदि आश्रित है तो यह वास्तव में विवेक के अधीन बात हो गयी. इसलिए मनुष्य को अपने आत्म के वशीभूत होना आवश्यक है. आत्म के वशीभूत न होने की दशा में गीता में यह बताया गया है कि उसके परिणाम भी बहुत सकारात्मक नहीं होते हैं. गीता के अट्ठारहवें अध्याय के उन्चासवें श्लोक में कहा गया है-
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः|
नैष्कर्म्यसिद्धिः परमां संन्यासेनाधिगच्छति ||
अर्थात जिसकी बुद्धि सब जगह अनासक्त रहती है, जिसमें आत्म को वश में कर लिया है और जिसे कोई इच्छा शेष नहीं रही-वह संन्यास द्वारा उस सर्वोच्च दशा तक पहुँच जाता है जो सब प्रकार के कर्म से ऊपर है. इसपर टिपण्णी करते हुए राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक भागवतगीता में लिखा है, “यदि हमें अपने आत्मवशी और स्वतः प्रकाशित सच्चे आत्म का ज्ञान प्राप्त करना हो तो अज्ञान और जड़ता से मुक्त सांसारिक संपत्ति से प्रेम रखने वाले अपने निम्नतर स्वभाव पर विजय पानी होगी.”
यह बातें मीडिया कर्म से जुड़े लोगों को मीडिया के नैतिकी पर ध्यान देते हुए आचरण में लानी होगी अन्यथा विमर्श के लिए मंच और व्याख्यान मीडिया के आत्म को सर्वदा अप्रकाशित ही रहने देंगे. इसके लिए गीता के तीसवें श्लोक की ओर अगर हम दृष्टिपात करें तो यह समझ में आता है कि बिना “सात्विक बुद्धि की इच्छा” के यह संभव नहीं है. मीडिया के आचार संहिता में ऐसे कोई सोद्देश्यपूर्ण बातें नहीं हैं जिसमें बुद्धि के सात्विकता पर विचार किया गया है. मुनाफे की मकड़जाल में पूरब और पश्चिम का जो मीडियाजगत फंस गया है उससे उसकी सात्विकता और सात्विक बुद्धि पर सवाल खड़े हो जाते हैं.
यदि सात्विकता होती है तो ही “आत्म” के साथ “ॐ तत सत-Om  Tat Sat,” की व्याप्ति होती है. ‘ॐ’ जो है वह सर्वोच्चता का सूचक है, ‘तत-Tatसार्वभौमिकता का और ‘सत-Sat ब्रह्म का. यानी ईश्वर जैसी विसाल संकल्पना का ब्रह्म भी बिना सात्विक चेतना के संभव नहीं है. मीडिया के सात्विक-आत्म के प्रकाश की संकल्पना हम इसकी गहनता से समझ सकते हैं.
मनुष्य के वैज्ञानिक सोच-समझ और संवेदना से मनुष्य खुद ज्यादा विकसित मान ले. उसकी चेतना के जो तीन स्वरुप हैं-जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति की वह किन अवस्थाओं में काम कर रही है यह महत्त्वपूर्ण पहलू है. गीता के सत्रहवें अध्याय में चेतना की जागृति भी व्याख्यायित है. मीडिया ने खुद की चेतना को अभी तक नहीं समझा है लेकिन गीता मीडियारूप में अगर है तो उसमें इसकी भी व्याख्या है. मनुष्य विज्ञान को अब सब कुछ का पैमाना मान रहा है. चलिए यह भी मान लें तो राधाकृष्णन के शब्दों में, “जिस संसार का अध्ययन विज्ञान करता है वह भी आत्म का प्रकाशन है. सम्पूर्ण प्रकृति एवं जीवन ब्रह्ममय है.”
जब प्रकृति और जीवन भी ब्रह्ममय है तो उसके ज्ञान का विस्तार भी हमेशा सकारात्मक होने चाहिए. क्योंकि सुकरात ने ज्ञान को गुण बताया है और प्लेटो तो उस ज्ञान को सिर्फ चेतन जगत के ज्ञान कहने से परहेज किया बल्कि उसने कहा कि ज्ञान श्रेष्ठतम जगत की अभिव्यक्ति है. यह अभिव्यक्ति कुछ और नहीं बल्कि “विचार” है. श्रेष्ठतम जगत का विचार प्लेटो की दृष्टि में-“शुभ” है. “शुभ” यानी “ईश्वर”.
आत्म के प्रकाश की चेतना इस प्रकार शुभ अर्थात ईश्वर तक है. भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं गीता के पांचवें अध्याय के पच्चीसवें श्लोक में इसको स्पष्ट किया है. जिसकी अगर हम व्याख्या करें तो यह कह सकते हैं कि-श्रीकृष्ण का सीधा यह कहना है कि मनुष्य को केवल आत्मा के जागृति तक ऊपर आरोहण नहीं करना है अपितु जंतु-जगत तक नीचे उतरना है. मीडिया के आत्म की परिधि इससे इतर शायद नहीं है इसलिए यदि मीडिया स्वयं को इस खड़ा पाए तो उसके आत्म का विस्तार और उसके आत्म की परिभाषा ज्यादा कठिन नहीं है.

























मंगलवार, 26 जनवरी 2016

मीडिया का आत्म

मीडिया का आत्म
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी

मीडिया का आत्म अभी तक अव्याख्यायित व अपरिभाषित है इसके पीछे जो कारण मुझे दीखता है, वह यह है कि या तो मीडिया इंटेलीजेंशिया इसको लेकर ज्यादा चेतस नहीं है. दूसरा, जो कारण मुझे दीखता है वह है- मीडिया के दर्शन को समझने की कोशिश अभी तक मीडिया बौद्धिकों (Media Intellectuals ) के बीच नहीं हो सकी. इसलिए भी शायद “मीडिया के आत्म” पर ज्यादा विमर्श नहीं हुआ. लेकिन मेरी दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण पहलू है, जिस पर देर-सवेर ही सही परिभाषित व व्याखायित करने की ज़रूर आवश्यकता महसूस की जायेगी.
मीडिया के आध्यात्मिक-अप्रोच ‘मीडिया के आत्म’ को समझने के लिए कुछ सहयोग प्रदान करते हैं. ‘मीडिया के आत्म’ को गीता के बहाने ज़रूर समझा जा सकता है. गीता का प्रत्येक पक्ष सतत समाज के अभिनवीकरण और मूल्यानुगत परिवर्तन के लिए क्रमशः सूत्र प्रदान करते हैं जो मीडिया का ख़ास मकसद होता है. सच्चे कर्म, आचरण, व्यवहार, संवेदना के साथ स्वीकृति और मूल्यहीन चीजों के साथ अस्वीकृति पर गीता हमें आगे बढ़ने की दृष्टि देती है. सत्य एवं ईश्वर के समक्ष रखते हए धर्म का निर्वाह करने का अद्भुत चित्रांकन हुआ है तो उसमें समष्टिगत चेतना का विकास है. और देखा जाय तो यह गीता का दृष्टिकोण मीडिया के वास्तविक आत्म का एक तरह से प्रतिबिम्बन है.
आत्म-बोध एक जटिल संवेदना है. यह साधना से ही संभव है. मनुष्य खुद इस आत्म को सामान्यतया काफी जिज्ञासा का विषय मानता है. जैसे बौमिस्टर Baumeister (1999) “आत्म” के बारे में कहता है- "The individual's belief about himself or herself, including the person's attributes and who and what the self is."1 इस प्रकार व्यक्ति स्वयं जब आत्म पर विचार करता है तो वह खुद से प्रश्न करता है-वह क्या है?, क्यों है? किसलिए है?
आत्म के खोज में मीडिया का भी यह प्रश्न हो सकता है लेकिन इसके त्वरित उत्तर भी देने की कोशिश करके मीडिया के आत्म को व्याख्यायित नहीं किया जा सकता क्योंकि सूक्ष्म का विश्लेषण दर्शन में सामान्य तरीके से नहीं होता. दर्शन में सूक्ष्म की व्याख्या दर्शनशास्त्री जीव-जगत की व्याख्या के साथ करते हैं. इसमें जीव-जगत के साथ परा-अपरा की भी व्याख्या होती है. मीडिया के साथ संभव है इतने गहराई से विचार न हों लेकिन किसी भी तथ्य के सम्प्रेषण में मीडिया के मूल्य उसके आत्म के लिए ज़वाबदेही तय करते हैं इसलिए इसकी गहनता भी काफी स्वतंत्र तरीके से अभिव्यक्त होगी. इसका कारण यह है कि मीडिया भी अपने अंतःकरण के साथ समय सापेक्षता को निर्धारित कर पा रहा है या नहीं यह उसे देखना होता है इसलिए मीडिया का आत्म मीडिया के अंतरात्मा और उसके अंतरात्मा की चेतना पर निर्भर करेगा जिस चेतना के साथ मनुष्य स्वयं खुद से सवाल करता है कि क्यों और किसलिए? मीडिया के तरह मनुष्य के चेतना की व्याप्ति समाज चाहता है क्योंकि मीडिया मनुष्य की संवेदन-प्रक्रिया से होकर गुजरने वाली चेतना है.
 डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपने सुप्रसिद्ध भाषण “पूरब और पश्चिम” में कहा था, “आज आत्मा के भीतर विचारों एवं चेतना के बीच की खाईं है. अपने आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक अवयवों में सामंजस्य स्थापित हो जाने के बाद ही कोई समाज स्थाई हो पाता है. ये तत्व अगर अर्थहीन दशाओं में पहुँच गए तो सामाजिक व्यवस्था चकनाचूर हो जाती है.” इस स्थिति में आत्म का प्रकाश-मीडिया के आत्म का प्रकाश किस तरह के रास्ते को चुने इसको उसे तय करना होगा. प्रायः यह सोचा जाता है कि मीडिया के आत्म का प्रकाश इसे सही दिशा में सही तरीके से आचरण में लाएगा लेकिन मीडिया के आत्म का प्रकाश भी मनुष्य के चेतना पर यदि आश्रित है तो यह वास्तव में विवेक के अधीन बात हो गयी. इसलिए मनुष्य को अपने आत्म के वशीभूत होना आवश्यक है. आत्म के वशीभूत न होने की दशा में गीता में यह बताया गया है कि उसके परिणाम भी बहुत सकारात्मक नहीं होते हैं. गीता के अट्ठारहवें अध्याय के उन्चासवें श्लोक में कहा गया है-
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः|
नैष्कर्म्यसिद्धिः परमां संन्यासेनाधिगच्छति ||
अर्थात जिसकी बुद्धि सब जगह अनासक्त रहती है, जिसमें आत्म को वश में कर लिया है और जिसे कोई इच्छा शेष नहीं रही-वह संन्यास द्वारा उस सर्वोच्च दशा तक पहुँच जाता है जो सब प्रकार के कर्म से ऊपर है. इसपर टिपण्णी करते हुए राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक भागवतगीता में लिखा है, “यदि हमें अपने आत्मवशी और स्वतः प्रकाशित सच्चे आत्म का ज्ञान प्राप्त करना हो तो अज्ञान और जड़ता से मुक्त सांसारिक संपत्ति से प्रेम रखने वाले अपने निम्नतर स्वभाव पर विजय पानी होगी.”
यह बातें मीडिया कर्म से जुड़े लोगों को मीडिया के नैतिकी पर ध्यान देते हुए आचरण में लानी होगी अन्यथा विमर्श के लिए मंच और व्याख्यान मीडिया के आत्म को सर्वदा अप्रकाशित ही रहने देंगे. इसके लिए गीता के तीसवें श्लोक की ओर अगर हम दृष्टिपात करें तो यह समझ में आता है कि बिना “सात्विक बुद्धि की इच्छा” के यह संभव नहीं है. मीडिया के आचार संहिता में ऐसे कोई सोद्देश्यपूर्ण बातें नहीं हैं जिसमें बुद्धि के सात्विकता पर विचार किया गया है. मुनाफे की मकड़जाल में पूरब और पश्चिम का जो मीडियाजगत फंस गया है उससे उसकी सात्विकता और सात्विक बुद्धि पर सवाल खड़े हो जाते हैं.
यदि सात्विकता होती है तो ही “आत्म” के साथ “ॐ तत सत-Om  Tat Sat,” की व्याप्ति होती है. ‘ॐ’ जो है वह सर्वोच्चता का सूचक है, ‘तत-Tatसार्वभौमिकता का और ‘सत-Sat ब्रह्म का. यानी ईश्वर जैसी विसाल संकल्पना का ब्रह्म भी बिना सात्विक चेतना के संभव नहीं है. मीडिया के सात्विक-आत्म के प्रकाश की संकल्पना हम इसकी गहनता से समझ सकते हैं.
मनुष्य के वैज्ञानिक सोच-समझ और संवेदना से मनुष्य खुद ज्यादा विकसित मान ले. उसकी चेतना के जो तीन स्वरुप हैं-जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति की वह किन अवस्थाओं में काम कर रही है यह महत्त्वपूर्ण पहलू है. गीता के सत्रहवें अध्याय में चेतना की जागृति भी व्याख्यायित है. मीडिया ने खुद की चेतना को अभी तक नहीं समझा है लेकिन गीता मीडियारूप में अगर है तो उसमें इसकी भी व्याख्या है. मनुष्य विज्ञान को अब सब कुछ का पैमाना मान रहा है. चलिए यह भी मान लें तो राधाकृष्णन के शब्दों में, “जिस संसार का अध्ययन विज्ञान करता है वह भी आत्म का प्रकाशन है. सम्पूर्ण प्रकृति एवं जीवन ब्रह्ममय है.”
जब प्रकृति और जीवन भी ब्रह्ममय है तो उसके ज्ञान का विस्तार भी हमेशा सकारात्मक होने चाहिए. क्योंकि सुकरात ने ज्ञान को गुण बताया है और प्लेटो तो उस ज्ञान को सिर्फ चेतन जगत के ज्ञान कहने से परहेज किया बल्कि उसने कहा कि ज्ञान श्रेष्ठतम जगत की अभिव्यक्ति है. यह अभिव्यक्ति कुछ और नहीं बल्कि “विचार” है. श्रेष्ठतम जगत का विचार प्लेटो की दृष्टि में-“शुभ” है. “शुभ” यानी “ईश्वर”.
आत्म के प्रकाश की चेतना इस प्रकार शुभ अर्थात ईश्वर तक है. भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं गीता के पांचवें अध्याय के पच्चीसवें श्लोक में इसको स्पष्ट किया है. जिसकी अगर हम व्याख्या करें तो यह कह सकते हैं कि-श्रीकृष्ण का सीधा यह कहना है कि मनुष्य को केवल आत्मा के जागृति तक ऊपर आरोहण नहीं करना है अपितु जंतु-जगत तक नीचे उतरना है. मीडिया के आत्म की परिधि इससे इतर शायद नहीं है इसलिए यदि मीडिया स्वयं को इस खड़ा पाए तो उसके आत्म का विस्तार और उसके आत्म की परिभाषा ज्यादा कठिन नहीं है.

























गुरुवार, 31 जुलाई 2014

विरासत बना प्रेमचंद का गांव

विरासत बना प्रेमचंद का गांव
कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के सिरमौर माने जाते हैं. वे उन थोड़े से लेखकों में शामिल हैं जिनके घर को उनकी याद में संजो कर रखा गया है. अब उनके गांव लमही को हेरिटेज विलेज के रूप में विकसित किया जा रहा है.
वाराणसी से लगे इस गांव को संरक्षित करने की कोशिशें काफी दिन से की जा रही थीं. मुंशीजी ने अपने पैतृक घर में करीब 40 वर्षों से भी अधिक साहित्य साधना की. उसे संग्रहालय बनाने की तैयारियां पूरी कर ली गई हैं. गांव के पोखर, तालाब और कुएं को भी संरक्षित किया जाएगा. प्रेमचंद के इस घर के सामने ही प्रेमचंद शोध संस्थान, अध्ययन केंद्र और प्रेमचंद सभागार का निर्माण लगभग पूरा होने को है.
वाराणसी शहर से लमही जाने के लिए पांडेयपुर चौराहे से बाएं आजमगढ़ जा रही सड़क पर मुड़ने से पहले ही प्रेमचंद के कथा पात्रों से परिचय होने लगता है. इस चौराहे पर उनके कथा पात्रों का सचित्र विवरण नजर आता है. आजमगढ़ रोड पर लमही के लिए बाएं अंदर जाने के लिए भव्य द्वार है. इस के दोनों तरफ भी प्रेमचंद के कथा पात्र काफी प्रमुखता से अपनी मौजूदगी दर्ज करते हैं. 'दो बैलों की कथा' के पात्र नजर आते हैं और उनके बीच शिला पट पर प्रेमचंद के बात दिखती है, "जब तक अंतःकरण दिव्य और उज्ज्वल न हो वह प्रकाश का प्रतिबिंब दूसरों पर नहीं डाल सकता". सभी की निगाहें सहसा लमही में प्रवेश करने से पहले इन पर पड़ती है और पहली बार जाने वाला इनको पढ़ता जरूर है.
द्वार की परंपरा
उत्तर प्रदेश में किसी भी गांव में प्रवेश के लिए भव्य द्वार की परंपरा नहीं है. लमही के अलावा शायद ही कोई गांव हो जिसमें दाखिल होने के लिए इतना अच्छा द्वार बना हो. इससे स्पष्ट होता है कि उनकी साहित्य साधना को उचित सम्मान अवश्य मिला है. 'लमही' नाम की साहित्य पत्रिका के सम्पादक विजय राय मानते हैं, "प्रेमचंद को वह सब कुछ मिला जो किसी भी लेखक कवि का सपना होता है." लेकिन वह यह भी कहते हैं कि ऐसे विरले कथाकार शताब्दियों में पैदा होते हैं. वे प्रेमचंद के भाई महताब राय के नाती हैं.
उस भव्य द्वार से लमही गांव तक बेहतरीन सड़क और गांव में सारी सुविधाएं भी शायद प्रेमचंद की बदौलत ही सरकारों ने मुहैया कराई हैं. प्रेमचंद मेमोरियल ट्रस्ट लमही के अध्यक्ष सुरेश दुबे बताते हैं कि उन्होंने पिछले वर्ष हेरिटेज विलेज के लिए प्रस्ताव भेजा था जिसे स्वीकार कर लिया गया है, "हेरिटेज विलेज बनने के बाद लमही में आने वाले वह काल और खंड महसूस कर सकेंगे जिसमें प्रेमचंद लिखा करते थे." उन्होंने बताया, "जिस कक्ष में मुंशीजी लिखते थे, जिस मेज पर वे लिखते थे उन चीजों को भी संरक्षित किया गया है." शोधार्थियों और युवा साहित्यकारों के लिए यह सब कुछ बहुत मूल्यवान और प्रेरणादायक है.
लेखक का सम्मान
विजय राय बताते हैं कि लमही को प्रेमचंद के हवाले से पहले वही लोग जानते थे जो प्रेमचंद पर शोध आदि करते थे, लेकिन अब साहित्य जगत का लगभग हर व्यक्ति लमही शब्द से परिचित हो चुका है. उनकी पत्रिका 'लमही' के प्रकाशन के अलावा राय पिछले पांच वर्षों से राष्ट्रीय स्तर के 'लमही सम्मान' का भी आयोजन कर रहे हैं. पहला लमही सम्मान प्रख्यात कथाकार शिवमूर्ति को दिया गया था.
उर्दू शायर आमिर रियाज कहते हैं कि यह पहला उदाहरण है कि किसी लेखक का गांव भी इतना मशहूर हुआ वर्ना कौन जानता है मिर्जा गालिब के गांव का नाम. वह कहते हैं कि किसी लेखक की जन्मभूमि को सम्मानित करना दरअसल लेखक को ही सम्मानित करना है. लमही को हेरिटेज विलेज बनाने को वह बेहद शानदार शुरुआत बताते हैं. इससे लेखक बिरादरी की गरिमा में चार चांद लगेंगे.

सोशल मीडिया पर ज्यादा समय युवा लोग

सोशल मीडिया पर ज्यादा समय युवा लोग 

फेसबुक, ट्विटर पर लड़ता गाजा

"मैं पूरी जिंदगी गाजा में रहा हूं. युद्ध मेरे लिए नया नहीं है. लेकिन इस बार हमारी जिंदगी का सबसे डरावना लम्हा है." गाजा के मुहम्मद सुलेमान ने ट्विटर पर बार बार अपनी कहानी लिखी है.
इस्राएल ने जब हमले तेज किए, तो सुलेमान के ट्वीट भी तेज हुए, "मैं सोच रहा हूं कि बच जाऊंगा. लेकिन अगर नहीं बच पाया, तो याद रखना. मैं हमास नहीं और ना ही मैं आतंकवादी हूं. मुझे मानव ढाल भी नहीं बनाया गया. मैं तो घर पर हूं."
करीब 20 साल के सुलेमान के 35,000 फॉलोअर हैं. गाजा से लगातार ट्वीट करके उसने ट्विटर पर इतने लोग जुटाए हैं. उसके ट्वीट बताते हैं कि गाजा में लोगों का मूड कैसा है. वह बताता है कि मिस्र और इस्राएल ने गाजा में जो बैरिकेड लगाए हैं, उन्हें हटाने की जरूरत है. वह बता रहा है कि स्थिति अब बहुत खराब हो चुकी है, "खुली जेल में जीने की बजाय मैं इज्जत के साथ मरना चाहूंगा."
फरहा बाकर तो सिर्फ 16 साल की हैं. उन्होंने इस्राएली हमलों के बीच एक रात लगातार ट्वीट करना शुरू कर दिया. उनके कुछ हजार फॉलोअर थे लेकिन इस रात के बाद फॉलोवरों की संख्या 30,000 पार कर गई. उनके ट्वीट किसी किशोरी की डायरी है, जो मिनट दर मिनट के हालात को बयान कर रही है. एक पोस्ट में उसने लिखा, "यह मेरा इलाका है. मैं खुद को रोने से रोक नहीं पा रही हूं. शायद आज रात मैं मारी जाऊं." यह ट्वीट एक बजे रात का था, जिसके साथ इस्राएली विस्फोट के बाद लगी आग की तस्वीर भी थी. इससे पहले उसने ट्वीट किया था, "जंग की सबसे खराब रात".
चीख कर मारती रॉकेट
उसने विस्फोट के वीडियो और साउंडक्लिप भी पोस्ट किए हैं. कुछ तस्वीरों में तो रोशनी इतनी ज्यादा है कि लग रहा है आधी रात नहीं, बल्कि दोपहर है. उसने अपनी खिड़की के बाहर हुए विस्फोट की आवाज कैद करके ट्वीट किया, "सैकड़ों बमों में से एक बम यह भी है. गाजा. आपको इसे सुनना पड़ेगा." उसका एक ट्वीट है, "जब भी मेरी छह साल की बहन रॉकेट गिरने की आवाज सुनती है, वह जोर से चिल्लाती है. वह अपनी चिल्लाहट में रॉकेट की आवाज दबाना चाहती है." उसके ज्यादातर ट्वीट अंग्रेजी में हैं.
पिछली बार जब इस्राएल ने 2008-09 में गाजा पर बड़ा हमला किया था, तो सोशल मीडिया इतना मजबूत नहीं था. लेकिन अब फेसबुक, ट्विटर और दूसरे माध्यमों से पल भर में बातें तेजी से फैल सकती हैं. कुछ जानकारों का कहना है कि इस्राएल पहले अपने पब्लिक रिलेशन से कई बातों को दबा लेता था. लेकिन इस बार युवाओं से उसे बड़ी चुनौती मिल रही है. इन युवाओं को दुनिया भर का साथ मिल रहा है.
कौन किसके साथ
ट्विटर पर #गाजाअंडरफायर का रोजाना तीन लाख बार जिक्र होता है, इसके मुकाबले #इस्राएलअंडरफायर का जिक्र सिर्फ 10,000 बार. इससे वैज्ञानिक तौर पर कोई बात साबित नहीं हो सकती लेकिन सोशल मीडिया के ट्रेंड का पता जरूर लगता है. संकटग्रस्त इलाकों में सलाहकार के तौर पर काम करने वाले अलबेनी एसोसिएट्स के पॉल बेल लिखते हैं, "अंतरराष्ट्रीय लोगों की नजर में इस्राएल युद्ध हार चुका है."
अमेरिका में गैलप सर्वे बताता है कि इस्राएल को वहां के लोगों का समर्थन जरूर है लेकिन दरार बढ़ रही है. सर्वे में शामिल 42 फीसदी लोगों ने कहा कि इस्राएल का कदम सही है, जबकि 39 फीसदी लोगों ने इसे गलत बताया. लेकिन 65 साल से ऊपर के 55 फीसदी लोगों ने इस्राएल को सही ठहराया, जबकि 18-29 उम्र के सिर्फ 25 फीसदी लोगों ने इसे सही कहा. सोशल मीडिया पर ज्यादा समय युवा लोग ही बिताते हैं.