बुधवार, 27 जनवरी 2016

मीडिया का आत्म

मीडिया का आत्म
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी

मीडिया का आत्म अभी तक अव्याख्यायित व अपरिभाषित है इसके पीछे जो कारण मुझे दीखता है, वह यह है कि या तो मीडिया इंटेलीजेंशिया इसको लेकर ज्यादा चेतस नहीं है. दूसरा, जो कारण मुझे दीखता है वह है- मीडिया के दर्शन को समझने की कोशिश अभी तक मीडिया बौद्धिकों (Media Intellectuals ) के बीच नहीं हो सकी. इसलिए भी शायद “मीडिया के आत्म” पर ज्यादा विमर्श नहीं हुआ. लेकिन मेरी दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण पहलू है, जिस पर देर-सवेर ही सही परिभाषित व व्याखायित करने की ज़रूर आवश्यकता महसूस की जायेगी.
मीडिया के आध्यात्मिक-अप्रोच ‘मीडिया के आत्म’ को समझने के लिए कुछ सहयोग प्रदान करते हैं. ‘मीडिया के आत्म’ को गीता के बहाने ज़रूर समझा जा सकता है. गीता का प्रत्येक पक्ष सतत समाज के अभिनवीकरण और मूल्यानुगत परिवर्तन के लिए क्रमशः सूत्र प्रदान करते हैं जो मीडिया का ख़ास मकसद होता है. सच्चे कर्म, आचरण, व्यवहार, संवेदना के साथ स्वीकृति और मूल्यहीन चीजों के साथ अस्वीकृति पर गीता हमें आगे बढ़ने की दृष्टि देती है. सत्य एवं ईश्वर के समक्ष रखते हए धर्म का निर्वाह करने का अद्भुत चित्रांकन हुआ है तो उसमें समष्टिगत चेतना का विकास है. और देखा जाय तो यह गीता का दृष्टिकोण मीडिया के वास्तविक आत्म का एक तरह से प्रतिबिम्बन है.
आत्म-बोध एक जटिल संवेदना है. यह साधना से ही संभव है. मनुष्य खुद इस आत्म को सामान्यतया काफी जिज्ञासा का विषय मानता है. जैसे बौमिस्टर Baumeister (1999) “आत्म” के बारे में कहता है- "The individual's belief about himself or herself, including the person's attributes and who and what the self is."1 इस प्रकार व्यक्ति स्वयं जब आत्म पर विचार करता है तो वह खुद से प्रश्न करता है-वह क्या है?, क्यों है? किसलिए है?
आत्म के खोज में मीडिया का भी यह प्रश्न हो सकता है लेकिन इसके त्वरित उत्तर भी देने की कोशिश करके मीडिया के आत्म को व्याख्यायित नहीं किया जा सकता क्योंकि सूक्ष्म का विश्लेषण दर्शन में सामान्य तरीके से नहीं होता. दर्शन में सूक्ष्म की व्याख्या दर्शनशास्त्री जीव-जगत की व्याख्या के साथ करते हैं. इसमें जीव-जगत के साथ परा-अपरा की भी व्याख्या होती है. मीडिया के साथ संभव है इतने गहराई से विचार न हों लेकिन किसी भी तथ्य के सम्प्रेषण में मीडिया के मूल्य उसके आत्म के लिए ज़वाबदेही तय करते हैं इसलिए इसकी गहनता भी काफी स्वतंत्र तरीके से अभिव्यक्त होगी. इसका कारण यह है कि मीडिया भी अपने अंतःकरण के साथ समय सापेक्षता को निर्धारित कर पा रहा है या नहीं यह उसे देखना होता है इसलिए मीडिया का आत्म मीडिया के अंतरात्मा और उसके अंतरात्मा की चेतना पर निर्भर करेगा जिस चेतना के साथ मनुष्य स्वयं खुद से सवाल करता है कि क्यों और किसलिए? मीडिया के तरह मनुष्य के चेतना की व्याप्ति समाज चाहता है क्योंकि मीडिया मनुष्य की संवेदन-प्रक्रिया से होकर गुजरने वाली चेतना है.
 डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपने सुप्रसिद्ध भाषण “पूरब और पश्चिम” में कहा था, “आज आत्मा के भीतर विचारों एवं चेतना के बीच की खाईं है. अपने आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक अवयवों में सामंजस्य स्थापित हो जाने के बाद ही कोई समाज स्थाई हो पाता है. ये तत्व अगर अर्थहीन दशाओं में पहुँच गए तो सामाजिक व्यवस्था चकनाचूर हो जाती है.” इस स्थिति में आत्म का प्रकाश-मीडिया के आत्म का प्रकाश किस तरह के रास्ते को चुने इसको उसे तय करना होगा. प्रायः यह सोचा जाता है कि मीडिया के आत्म का प्रकाश इसे सही दिशा में सही तरीके से आचरण में लाएगा लेकिन मीडिया के आत्म का प्रकाश भी मनुष्य के चेतना पर यदि आश्रित है तो यह वास्तव में विवेक के अधीन बात हो गयी. इसलिए मनुष्य को अपने आत्म के वशीभूत होना आवश्यक है. आत्म के वशीभूत न होने की दशा में गीता में यह बताया गया है कि उसके परिणाम भी बहुत सकारात्मक नहीं होते हैं. गीता के अट्ठारहवें अध्याय के उन्चासवें श्लोक में कहा गया है-
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः|
नैष्कर्म्यसिद्धिः परमां संन्यासेनाधिगच्छति ||
अर्थात जिसकी बुद्धि सब जगह अनासक्त रहती है, जिसमें आत्म को वश में कर लिया है और जिसे कोई इच्छा शेष नहीं रही-वह संन्यास द्वारा उस सर्वोच्च दशा तक पहुँच जाता है जो सब प्रकार के कर्म से ऊपर है. इसपर टिपण्णी करते हुए राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक भागवतगीता में लिखा है, “यदि हमें अपने आत्मवशी और स्वतः प्रकाशित सच्चे आत्म का ज्ञान प्राप्त करना हो तो अज्ञान और जड़ता से मुक्त सांसारिक संपत्ति से प्रेम रखने वाले अपने निम्नतर स्वभाव पर विजय पानी होगी.”
यह बातें मीडिया कर्म से जुड़े लोगों को मीडिया के नैतिकी पर ध्यान देते हुए आचरण में लानी होगी अन्यथा विमर्श के लिए मंच और व्याख्यान मीडिया के आत्म को सर्वदा अप्रकाशित ही रहने देंगे. इसके लिए गीता के तीसवें श्लोक की ओर अगर हम दृष्टिपात करें तो यह समझ में आता है कि बिना “सात्विक बुद्धि की इच्छा” के यह संभव नहीं है. मीडिया के आचार संहिता में ऐसे कोई सोद्देश्यपूर्ण बातें नहीं हैं जिसमें बुद्धि के सात्विकता पर विचार किया गया है. मुनाफे की मकड़जाल में पूरब और पश्चिम का जो मीडियाजगत फंस गया है उससे उसकी सात्विकता और सात्विक बुद्धि पर सवाल खड़े हो जाते हैं.
यदि सात्विकता होती है तो ही “आत्म” के साथ “ॐ तत सत-Om  Tat Sat,” की व्याप्ति होती है. ‘ॐ’ जो है वह सर्वोच्चता का सूचक है, ‘तत-Tatसार्वभौमिकता का और ‘सत-Sat ब्रह्म का. यानी ईश्वर जैसी विसाल संकल्पना का ब्रह्म भी बिना सात्विक चेतना के संभव नहीं है. मीडिया के सात्विक-आत्म के प्रकाश की संकल्पना हम इसकी गहनता से समझ सकते हैं.
मनुष्य के वैज्ञानिक सोच-समझ और संवेदना से मनुष्य खुद ज्यादा विकसित मान ले. उसकी चेतना के जो तीन स्वरुप हैं-जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति की वह किन अवस्थाओं में काम कर रही है यह महत्त्वपूर्ण पहलू है. गीता के सत्रहवें अध्याय में चेतना की जागृति भी व्याख्यायित है. मीडिया ने खुद की चेतना को अभी तक नहीं समझा है लेकिन गीता मीडियारूप में अगर है तो उसमें इसकी भी व्याख्या है. मनुष्य विज्ञान को अब सब कुछ का पैमाना मान रहा है. चलिए यह भी मान लें तो राधाकृष्णन के शब्दों में, “जिस संसार का अध्ययन विज्ञान करता है वह भी आत्म का प्रकाशन है. सम्पूर्ण प्रकृति एवं जीवन ब्रह्ममय है.”
जब प्रकृति और जीवन भी ब्रह्ममय है तो उसके ज्ञान का विस्तार भी हमेशा सकारात्मक होने चाहिए. क्योंकि सुकरात ने ज्ञान को गुण बताया है और प्लेटो तो उस ज्ञान को सिर्फ चेतन जगत के ज्ञान कहने से परहेज किया बल्कि उसने कहा कि ज्ञान श्रेष्ठतम जगत की अभिव्यक्ति है. यह अभिव्यक्ति कुछ और नहीं बल्कि “विचार” है. श्रेष्ठतम जगत का विचार प्लेटो की दृष्टि में-“शुभ” है. “शुभ” यानी “ईश्वर”.
आत्म के प्रकाश की चेतना इस प्रकार शुभ अर्थात ईश्वर तक है. भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं गीता के पांचवें अध्याय के पच्चीसवें श्लोक में इसको स्पष्ट किया है. जिसकी अगर हम व्याख्या करें तो यह कह सकते हैं कि-श्रीकृष्ण का सीधा यह कहना है कि मनुष्य को केवल आत्मा के जागृति तक ऊपर आरोहण नहीं करना है अपितु जंतु-जगत तक नीचे उतरना है. मीडिया के आत्म की परिधि इससे इतर शायद नहीं है इसलिए यदि मीडिया स्वयं को इस खड़ा पाए तो उसके आत्म का विस्तार और उसके आत्म की परिभाषा ज्यादा कठिन नहीं है.

























मंगलवार, 26 जनवरी 2016

मीडिया का आत्म

मीडिया का आत्म
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी

मीडिया का आत्म अभी तक अव्याख्यायित व अपरिभाषित है इसके पीछे जो कारण मुझे दीखता है, वह यह है कि या तो मीडिया इंटेलीजेंशिया इसको लेकर ज्यादा चेतस नहीं है. दूसरा, जो कारण मुझे दीखता है वह है- मीडिया के दर्शन को समझने की कोशिश अभी तक मीडिया बौद्धिकों (Media Intellectuals ) के बीच नहीं हो सकी. इसलिए भी शायद “मीडिया के आत्म” पर ज्यादा विमर्श नहीं हुआ. लेकिन मेरी दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण पहलू है, जिस पर देर-सवेर ही सही परिभाषित व व्याखायित करने की ज़रूर आवश्यकता महसूस की जायेगी.
मीडिया के आध्यात्मिक-अप्रोच ‘मीडिया के आत्म’ को समझने के लिए कुछ सहयोग प्रदान करते हैं. ‘मीडिया के आत्म’ को गीता के बहाने ज़रूर समझा जा सकता है. गीता का प्रत्येक पक्ष सतत समाज के अभिनवीकरण और मूल्यानुगत परिवर्तन के लिए क्रमशः सूत्र प्रदान करते हैं जो मीडिया का ख़ास मकसद होता है. सच्चे कर्म, आचरण, व्यवहार, संवेदना के साथ स्वीकृति और मूल्यहीन चीजों के साथ अस्वीकृति पर गीता हमें आगे बढ़ने की दृष्टि देती है. सत्य एवं ईश्वर के समक्ष रखते हए धर्म का निर्वाह करने का अद्भुत चित्रांकन हुआ है तो उसमें समष्टिगत चेतना का विकास है. और देखा जाय तो यह गीता का दृष्टिकोण मीडिया के वास्तविक आत्म का एक तरह से प्रतिबिम्बन है.
आत्म-बोध एक जटिल संवेदना है. यह साधना से ही संभव है. मनुष्य खुद इस आत्म को सामान्यतया काफी जिज्ञासा का विषय मानता है. जैसे बौमिस्टर Baumeister (1999) “आत्म” के बारे में कहता है- "The individual's belief about himself or herself, including the person's attributes and who and what the self is."1 इस प्रकार व्यक्ति स्वयं जब आत्म पर विचार करता है तो वह खुद से प्रश्न करता है-वह क्या है?, क्यों है? किसलिए है?
आत्म के खोज में मीडिया का भी यह प्रश्न हो सकता है लेकिन इसके त्वरित उत्तर भी देने की कोशिश करके मीडिया के आत्म को व्याख्यायित नहीं किया जा सकता क्योंकि सूक्ष्म का विश्लेषण दर्शन में सामान्य तरीके से नहीं होता. दर्शन में सूक्ष्म की व्याख्या दर्शनशास्त्री जीव-जगत की व्याख्या के साथ करते हैं. इसमें जीव-जगत के साथ परा-अपरा की भी व्याख्या होती है. मीडिया के साथ संभव है इतने गहराई से विचार न हों लेकिन किसी भी तथ्य के सम्प्रेषण में मीडिया के मूल्य उसके आत्म के लिए ज़वाबदेही तय करते हैं इसलिए इसकी गहनता भी काफी स्वतंत्र तरीके से अभिव्यक्त होगी. इसका कारण यह है कि मीडिया भी अपने अंतःकरण के साथ समय सापेक्षता को निर्धारित कर पा रहा है या नहीं यह उसे देखना होता है इसलिए मीडिया का आत्म मीडिया के अंतरात्मा और उसके अंतरात्मा की चेतना पर निर्भर करेगा जिस चेतना के साथ मनुष्य स्वयं खुद से सवाल करता है कि क्यों और किसलिए? मीडिया के तरह मनुष्य के चेतना की व्याप्ति समाज चाहता है क्योंकि मीडिया मनुष्य की संवेदन-प्रक्रिया से होकर गुजरने वाली चेतना है.
 डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपने सुप्रसिद्ध भाषण “पूरब और पश्चिम” में कहा था, “आज आत्मा के भीतर विचारों एवं चेतना के बीच की खाईं है. अपने आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक अवयवों में सामंजस्य स्थापित हो जाने के बाद ही कोई समाज स्थाई हो पाता है. ये तत्व अगर अर्थहीन दशाओं में पहुँच गए तो सामाजिक व्यवस्था चकनाचूर हो जाती है.” इस स्थिति में आत्म का प्रकाश-मीडिया के आत्म का प्रकाश किस तरह के रास्ते को चुने इसको उसे तय करना होगा. प्रायः यह सोचा जाता है कि मीडिया के आत्म का प्रकाश इसे सही दिशा में सही तरीके से आचरण में लाएगा लेकिन मीडिया के आत्म का प्रकाश भी मनुष्य के चेतना पर यदि आश्रित है तो यह वास्तव में विवेक के अधीन बात हो गयी. इसलिए मनुष्य को अपने आत्म के वशीभूत होना आवश्यक है. आत्म के वशीभूत न होने की दशा में गीता में यह बताया गया है कि उसके परिणाम भी बहुत सकारात्मक नहीं होते हैं. गीता के अट्ठारहवें अध्याय के उन्चासवें श्लोक में कहा गया है-
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः|
नैष्कर्म्यसिद्धिः परमां संन्यासेनाधिगच्छति ||
अर्थात जिसकी बुद्धि सब जगह अनासक्त रहती है, जिसमें आत्म को वश में कर लिया है और जिसे कोई इच्छा शेष नहीं रही-वह संन्यास द्वारा उस सर्वोच्च दशा तक पहुँच जाता है जो सब प्रकार के कर्म से ऊपर है. इसपर टिपण्णी करते हुए राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक भागवतगीता में लिखा है, “यदि हमें अपने आत्मवशी और स्वतः प्रकाशित सच्चे आत्म का ज्ञान प्राप्त करना हो तो अज्ञान और जड़ता से मुक्त सांसारिक संपत्ति से प्रेम रखने वाले अपने निम्नतर स्वभाव पर विजय पानी होगी.”
यह बातें मीडिया कर्म से जुड़े लोगों को मीडिया के नैतिकी पर ध्यान देते हुए आचरण में लानी होगी अन्यथा विमर्श के लिए मंच और व्याख्यान मीडिया के आत्म को सर्वदा अप्रकाशित ही रहने देंगे. इसके लिए गीता के तीसवें श्लोक की ओर अगर हम दृष्टिपात करें तो यह समझ में आता है कि बिना “सात्विक बुद्धि की इच्छा” के यह संभव नहीं है. मीडिया के आचार संहिता में ऐसे कोई सोद्देश्यपूर्ण बातें नहीं हैं जिसमें बुद्धि के सात्विकता पर विचार किया गया है. मुनाफे की मकड़जाल में पूरब और पश्चिम का जो मीडियाजगत फंस गया है उससे उसकी सात्विकता और सात्विक बुद्धि पर सवाल खड़े हो जाते हैं.
यदि सात्विकता होती है तो ही “आत्म” के साथ “ॐ तत सत-Om  Tat Sat,” की व्याप्ति होती है. ‘ॐ’ जो है वह सर्वोच्चता का सूचक है, ‘तत-Tatसार्वभौमिकता का और ‘सत-Sat ब्रह्म का. यानी ईश्वर जैसी विसाल संकल्पना का ब्रह्म भी बिना सात्विक चेतना के संभव नहीं है. मीडिया के सात्विक-आत्म के प्रकाश की संकल्पना हम इसकी गहनता से समझ सकते हैं.
मनुष्य के वैज्ञानिक सोच-समझ और संवेदना से मनुष्य खुद ज्यादा विकसित मान ले. उसकी चेतना के जो तीन स्वरुप हैं-जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति की वह किन अवस्थाओं में काम कर रही है यह महत्त्वपूर्ण पहलू है. गीता के सत्रहवें अध्याय में चेतना की जागृति भी व्याख्यायित है. मीडिया ने खुद की चेतना को अभी तक नहीं समझा है लेकिन गीता मीडियारूप में अगर है तो उसमें इसकी भी व्याख्या है. मनुष्य विज्ञान को अब सब कुछ का पैमाना मान रहा है. चलिए यह भी मान लें तो राधाकृष्णन के शब्दों में, “जिस संसार का अध्ययन विज्ञान करता है वह भी आत्म का प्रकाशन है. सम्पूर्ण प्रकृति एवं जीवन ब्रह्ममय है.”
जब प्रकृति और जीवन भी ब्रह्ममय है तो उसके ज्ञान का विस्तार भी हमेशा सकारात्मक होने चाहिए. क्योंकि सुकरात ने ज्ञान को गुण बताया है और प्लेटो तो उस ज्ञान को सिर्फ चेतन जगत के ज्ञान कहने से परहेज किया बल्कि उसने कहा कि ज्ञान श्रेष्ठतम जगत की अभिव्यक्ति है. यह अभिव्यक्ति कुछ और नहीं बल्कि “विचार” है. श्रेष्ठतम जगत का विचार प्लेटो की दृष्टि में-“शुभ” है. “शुभ” यानी “ईश्वर”.
आत्म के प्रकाश की चेतना इस प्रकार शुभ अर्थात ईश्वर तक है. भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं गीता के पांचवें अध्याय के पच्चीसवें श्लोक में इसको स्पष्ट किया है. जिसकी अगर हम व्याख्या करें तो यह कह सकते हैं कि-श्रीकृष्ण का सीधा यह कहना है कि मनुष्य को केवल आत्मा के जागृति तक ऊपर आरोहण नहीं करना है अपितु जंतु-जगत तक नीचे उतरना है. मीडिया के आत्म की परिधि इससे इतर शायद नहीं है इसलिए यदि मीडिया स्वयं को इस खड़ा पाए तो उसके आत्म का विस्तार और उसके आत्म की परिभाषा ज्यादा कठिन नहीं है.